जीवन कितना अनमोल है, ये हमें 2019 मे आयी महामारी ने याद दिला दिया। इस समय महामारी का तो नाम सुन कर भी डर लगता है – हाल ही में कोरोनावाइरस ने जो तबाही मचायी है, उसने हम सब को बता दिया की प्रकृति के आगे किसी की नहीं चलती। जानकारो की माने तो इस महामारी को भी आने से रोका जा सकता था अगर हमने प्रकृति के साथ इतना खिलवाड़ ना किया होता।
आज हम जिस महामारी की आशंका जता रहे है उसका सम्बंध भी प्रकृति से ही है। आइए जानते है की कैसे धरती पर जमी हुई करोड़ों साल पुरानी बर्फ़ की ज़मीन से आ सकती है अगली महामारी।
क्याहोतीहैयेपर्माफ्रॉस्ट
पर्माफ्रॉस्ट स्थायी रूप से जमी हुई धरा के नीचे के पधार्थ को बोलते है। यह पधार्थ कुछ भी हो सकता है: जैविक मिट्टी, खनिज मिट्टी, रेत, बजरी। ग्लेशियर की बर्फ इस परिभाषा में फिट हो सकती है लेकिन वैज्ञानिक इसे या समुद्री बर्फ को पर्माफ्रॉस्ट की परिभाषा में शामिल नहीं करते हैं।
धरती का उत्तरी भाग में (आर्कटिक) लगबघ 2 करोड़ 30 लाख स्क्वायर किलोमीटर भूमि साल भर जमी रहती है। और इस जमी हुई भूमि के अंदर पनप रहे है करोड़ों साल पुराने सूक्ष्मजीव।
बढ़ते तापमान के कारण, दुनिया भर में पर्माफ्रॉस्ट पिघल रहे है, जिससे वो बाहर आ रहा है जो करोड़ों सालो से भूमि के नीचे पनपता था। कई प्राचीन जानवरों और यहां तक कि रोगजनकों के अवशेष पारंपरिक रूप से कम तापमान वाले क्षेत्रों में बढ़ते रहेंगे क्योंकि पर्माफ्रॉस्ट का पिघलना जारी है।
जलवायुपरिवर्तनकाहैसबसेबड़ाहाथ
जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने का सबसे बड़ा कारण है।
जलवायु परिवर्तन की गंभीरता बढ़ती जा रही है। आर्कटिक इस घटना से दुनिया के सबसे अधिक प्रभावित भागों में से एक है। जैसे-जैसे वैश्विक तापमान बढ़ता है, आर्कटिक की पर्माफ्रॉस्ट परतों में जमे हुए प्राचीन वायरस उजागर हो जाएंगे और सम्भव है की COVID-19 जैसी महामारी (या इससे भी ख़तरनाक) को जन्म देंगे।
ग्लोबल वार्मिंग के कारण अब भूमि और गति से गर्म हो रही है, जिसके कारण मिट्टी में लंबे समय से फंसी ग्रीनहाउस गैसे भी निकल जाएंगी। परिणामस्वरूप, रोगजनक जो पिघलते और सूखते हैं, वायरस के रूप में मनुष्यों और वन्यजीवों के बीच लम्बे समय तक परेशानी पैदा कर सकते हैं।
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आर्कटिक घातक वायरस के लिए नया नहीं है। 1918 के इन्फ्लूएंज़ा महामारी के शिकार लोगों के शरीर, जिनसे अब कई लोग वर्तमान कोरोनावायरस महामारी की तुलना कर रहे हैं, अभी भी आर्कटिक पर्माफ्रॉस्ट में दबे हुए हैं।
और 1890 के दशक में साइबेरियाई बस्तियों में चेचक के प्रकोप के सदियों बाद, अब नष्ट हो रही कोलिमा नदी के किनारे दबे लोगों के शव फिर से उभरने लगे हैं।
हालाँकि आर्कटिक के पर्माफ्रॉस्ट में दबे सभी प्रकार के सूक्ष्मजीवो जैसे बैक्टीरिया और वाइरस से जीवों को ख़तरा हो यह ज़रूरी नहीं है।
लेकिन आर्कटिक बर्फ के भीतर सैकड़ों या हजारों वर्षों तक संरक्षित रहने के बाद अन्य अज्ञात वायरस और बैक्टीरिया संभावित रूप से मनुष्यों में फैल सकते हैं। हमारे पूर्वजों के पास प्रतिरक्षा के बिना, मनुष्य और जानवर जो रोग फैला सकते, दोनों, पुनर्जीवित रोगाणुओं के लिए बेहद कमज़ोंर हो सकते हैं।
प्रकृतिकीसंरक्षाकरें
अब सवाल यह उठता है कि इस आने वाली समस्या का क्या हाल है। सीधे तौर पर ग्लेशियर का पिघलना इसका मुख्य कारण है। और अगर पृथ्वी के लगातार बढ़ते हुए तापमान को रोक दिए जाए या कम कर दिया जाए तो काफ़ी हद तक इस मामले में आराम मिल सकता है।
इसके लिए दुनिया के सभी देशों को पेरिस एग्रीमेंट के तहत जलवायु परिवर्तन की ओर और भी कड़े कदम उठाने की ज़रूरत है। ध्यान रहे हम सब मिलकर अगर एक साथ इस लड़ाई को लड़े और पृथ्वी मां को बचाने में अपनी कोशिश करें तो हम आने वाले महामारी और प्रलय से बचने में सक्षम हों पाएंगे।